Saturday, September 15, 2012

भावों की अभिव्यक्ति किसी की भाषा बन जाती है.
संवेदी आशक्ति किसी  की भाषा बन जाती है.
मूक-बधिर की भाषा क्या? अभिव्यक्ति हुआ करती है.
उनके सम्प्रेषण में अहसासों की शक्ति हुआ करती है.
सबकी अपनी भाषा होती, पशुओं की, नभचर की.
सबकी अपनी शैली होती, प्रश्न और उत्तर की.
सदा प्रेम की भाषा भी तो शब्द-रहित होती है.
अपने मन की बातें भी तो बिन बोले कहती है.
अतः मात्र भाषा है दूजा रूप एक अभिव्यक्ति का.
यही एक माध्यम होता है सबमें जीव-प्रवत्ति का.

Thursday, March 8, 2012

मुझको रंग लगा दो फिर से,

मुझको रंग लगा दो फिर से,
चाहत के अहसासों का।
किसे पता है, किसे भरोसा,
अपनी अनगिन सासों का।।
खालीपन जीवन का मेरा,
रंग बिरंगा हो जाये,
चाहत की बूंदों से मेरा,
मन भी गंगा हो जाये,
तुमसे मैने बंधन बांधा,
अपने कुछ विश्वासों का॥
मुझको ऐसे रंग दो जैसे,
राधा के संग श्याम रंगे,
तन-मन ऐसे रंग दो मेरा,
संग तुम्हारे नाम रंगे;
दिल की बगिया से लाओ तुम,
कोई रंग पलासों का॥
ऐसा रंग लगा दो मुझको,
जीवन भर न छूटे,
बांध लिया जो बंधन तुम संग,
जनम-जनम न टूटे,
प्रीत-रीत का बंधन,
बना रहे इन आसों का॥
डॉ० अनुज भदौरिया "जालौनवी"

होली की हार्दिक शुभकामनायें

Thursday, February 23, 2012

चंद लम्हे

भूल जाओ प्यार के वो चंद लम्हे।
कब रहे है प्यार के पावंद लम्हे॥
याद से इनकी कसक बढ़ती रहेगी,
ये किसी नासूर के मानिंद लम्हे॥
आँख में कोई चुभन बन कर चुभेंगे,
मत करो आँखों में तुम ये बंद लम्हे॥
बेबसी की नज़्म पर हमने लिखे जो,
आ गिरे है ये उन्ही के छंद लम्हे॥
आपके लम्हात में ही जी सकेंगे,
दे गए जो आपको आनंद लम्हे॥
मत करो ख्वाहिश वफ़ा की तुम 'अनुज',
ये सदा से ही रहे जयचन्द लम्हे॥


डॉ० अनुज भदौरिया "जालौनवी"

Monday, December 12, 2011

कई दिनों से मुझे एक दिन का इंतज़ार है,
रोज आता है पर दिल बेकरार है।
जब माँ के आँचल में बैठा ,
तो सोचा एक दिन
आएगा जब में घुटनों के बल चलूँगा,
पा, मा, दू बोलूँगा।
दिन आया और गुजर गया,
पा को पापा, मा को माँ
तथा दू को दूध बोलने लगा।
सब कुछ बदल गया,
वह दिन नहीं आया
जिसका मुझे इंतज़ार था,
उस दिन के लिए
मेरे मन में सपने बेशुमार है। मुझे एक दिन का इंतज़ार है.......
आज फिर सोचा
जब बगल के
भोलू, जग्गू दादा को
क्रिकेट खेलते देखा।
सोचा न जाने कब बड़ा होऊंगा।
धीरे-धीरे मै
विकेट के पीछे खड़ा होने लगा,
लगने लगा लगा बार जैसे मै बड़ा होने लगा।
वर्णमाला कंठस्थ ,
उच्चारण स्पष्ट
तथा लेखनी स्पष्ट आने लगी,
सब-कुछ सीखता जा रहा था,
शायद संयोग या संस्कार है। मुझे एक दिन का इंतज़ार है....................
आज पहली बार
वार्षिक परिणाम मिला,
तो कार्य और लगन को अंजाम मिला,
सबको दिखाया,
कक्षा में प्रथम आया,
अजीब दिन था वह,
किन्तु यह वो दिन नहीं था।
लगा की जैसे ये क्षणिक बहार है। मुझे एक दिन का इंतज़ार है.............
आज पहली बार
घर से बाहर जा रहा हूँ,
बहुत कुछ ढूढना है
इस सांसारिक समंदर से,
वह दिन जिसका इंतज़ार है वह आएगा,
यह सोच कर ही निकला हूँ,
जब कभी घर में
किसी की याद आती है,
तो एक दिन की प्रतीक्षा ही
भरोसा दिलाती है।
मैं सपनों से नहीं भागता,
बल्कि सपने हकीक़त से भागते है,
और मैं हकीक़त हूँ ऐसा मेरा विचार है। मुझे एक दिन का इंतज़ार है.....................
आज लग रहा है
कि शायद यही वह दिन है,
नौकरी भी लग गयी
और शादी भी हो गयी,
बीवी के साथ खुश हूँ,
किन्तु फिर भी
मुझे एक दिन का इंतज़ार है,
जब एक छोटा सा
प्यारा बच्चा होगा,
वही मेरा सपना और जीवन का आधार है। मुझे एक दिन का इंतज़ार है..........................
आज एक पुत्र भी है
किन्तु वह दिन नहीं आया,
पता नहीं कितनी
गहराइयों में जाकर समाया।
सोच रहा हूँ की एक दिन आये
और लड़का पढ़-लिख कर
नौकरी करने लगे
अपना पेट भरने लगे।
तब अपने बेटे की शादी रचा दूं,
और अपने फ़र्ज़ से मुक्ति पा लूं।
वह दिन आया
और  रुके बिना चला गया,
दादा बनने के सपने
हकीक़त में बदल गए,
चेहरे पर सहस्त्रों बल पड़ गए।
आज जब मैं निष्प्राण होने के करीब था
और जब प्राण गले में आकर फंसा,
तो वही एक दिन मेरी मुर्खता पर
बड़ी जोर से हंसा।
बोला, मुर्ख किसे ढून्ढ रहा है,
जिसे तू ढून्ढ रहा है
वह तुम्हारे साथ जा रहा है,
तेरे इंतज़ार को मिटा रहा है।
तब मैंने सोचा,
शायद यही सच है,
पता नहीं कहाँ अटका था,
शायद कहीं भटका था।
यही दिन तो वो दिन है,
जिसका इंतज़ार है,
अब तक का विस्तार है
और यही सारे जीवन का सार है।
हाँ, मुझे इसी दिन का इंतज़ार है............ हाँ, मुझे इसी दिन का इंतज़ार है..............हाँ, मुझे इसी दिन का इंतज़ार है..
 डॉ० अनुज भदौरिया ' जालौनवी '
१२७०, नया रामनगर, उरई ( जालौन ) उ० प्र०
२८५००१
दूरभाष- ०५१६२-२५५४५१
चल दूरभाष- ०९४१५१६९९३६

Friday, October 7, 2011

सदियों से संहारा रावण,
लेकिन रावण मर न पाया।
हमने पुतले दहन किये है,
अंतस अब तक नहीं जलाया॥
आज हमारे अंतस में,
उस रावण का विश्राम देखिये,
कौन आज अब रावण मारे,
कहाँ आज अब राम देखिये,
मारें अपना अंतस रावण,
जो अब तक यूँ मर न पाया॥
आज जला दो मन के सारे,
रावण, कुम्भकरण, घननाद,
आज मिटा दो मन में सारे,
द्वेष, ईर्ष्या और विषाद,
आज आचमन कर दो उसका,
जो मन अब तक तर न पाया॥
शासन के जो कुम्भकरण हैं,
और समाज के रावण मारो,
जो जीवन को नरक बनाये,
ऐसे सारे कारण मारो,
तुम ऐसा परिवर्तन लाओ,
कोई जो अब तक कर न पाया॥
तभी मानेगा विजय-पर्व यह,
सदियों से जो सँवर न पाया॥

डॉ० अनुज भदौरिया "जालौनवी"

Wednesday, September 28, 2011

मेरी सुन ले तू मनुहार


तू ही जग की पालनहारी,तू ही भाग्य विधाता।
तेरे दर पर आया हूँ मैं, शेरों वाली माता॥
सबके तू भंडार भरे हैं, खाली कोई न जाता।
मैं भी अपनी विनती लेकर, द्वार तुम्हारे आता॥
मेरी सुन ले तू मनुहार,
आया मैया जी के द्वार।
आया मैया जी के द्वार,
कर दे मेरा बेड़ा पार॥
तू ही अम्बे, तू जगदम्बे, तू ही जग कल्याणी,
सबके मन के भाव तू जाने, सबके दिल की वाणी;
तुझसे बड़ा न कोई, तेरी महिमा अपरम्पार॥
एक लाल का सुख-दुःख जग में, माता ने पहचाना,
इस बंधन से नहीं है कोई, बंधन और सुहाना;
आज निभा कर इस बंधन को, कर दे तू उद्धार॥
संकट हरणी, आज हमारे, बिगड़े काज संवारो,
पाप किये जो इस पापी ने, सारे पाप उतारो;
तू जो दया करे तो होगा, माँ मुझ पर उपकार॥
दीन, दुखी, निर्धन और कोढ़ी, द्वार तुम्हारे आये,
जो माँगा सो पाया सबने, खाली हाथ न जाए;
मैं तो मांगूं अपनी माँ से, बस थोडा सा प्यार॥
डॉ० अनुज भदौरिया

Tuesday, September 13, 2011

तुमसे ही शुरू होकर

इक सुबह शुरू होती, इक रात ख़तम होती।
तुमसे ही शुरू होकर हर बात ख़तम होती॥
जुल्फों की अज़ब रंगत, बादल से चुरायी है,
बिखरें तो रोशनी की, बारात ख़तम होती॥
है चाँद भी शर्मिंदा, देखा जो तेरा चेहरा,
तेरे रूबरू तो उसकी, औकात ख़तम होती॥
मिलता हूँ जब भी तुमसे, हर पल हसीन लगता,
आँखों से अश्क-ए-गम की, बरसात ख़तम होती॥
हासिल 'अनुज' हुई है, मंजिल-ए-मुहब्बत की,
अब तो सफ़र की तुमपे, शुरुआत ख़तम होती॥

डॉ० अनुज भदौरिया